Thursday, December 22, 2016

DABP


विदृप्रनि - संक्षिप्त इतिहास

विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (विदृप्रनि) भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के लिए बहु-माध्यम विज्ञापन तथा प्रचार का कार्यभार उठाने वाली एकमात्र नोडल एजेंसी है। कुछ स्वायत्त संस्थाएं भी अपने विज्ञापन विदृप्रनि के माध्यम से देती हैं। सर्विस एजेंसी के रूप में, यह केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की ओर से जमीनी स्तर पर सम्प्रेषण करने का प्रयास करता है।

 

विदृप्रनि के उद्‌भव के संकेत द्वितीय विश्व युद्ध के समय में देखे जा सकते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ होने के तुरंत बाद, तत्कालीन भारत सरकार ने एक मुखय प्रैस सलाहकार को नियुक्त किया। अन्य कार्यों के अलावा, विज्ञापन भी मुखय प्रेस सलाहकार की जिम्मेदारी थी। जून 1941 में मुखय प्रेस सलाहकार के अधीन विज्ञापन परामर्शदाता के पद का सर्जन किया गया। यहां से विदृप्रनि का उद्‌भव हुआ। 1 मार्च 1942 को विज्ञापन परामर्शदाता कार्यालय सूचना और प्रसारण विभाग की विज्ञापन शाखा बन गया। इस विज्ञापन इकाई के कार्यक्षेत्र, कार्यप्रणाली तथा गतिविधियों को विस्तार से देखते हुए 1 अक्तूबर, 1955 को इसे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का संबद्ध कार्यालय घोषित किया गया। तथा इस कार्यालय को विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय का नाम दिया गया। बाद में 4 अप्रैल 1959 को महानिदेशक/निदेशक, विदृप्रनि को विभाग प्रमुचर घोषित किया गया। इस घोषणा के परिणाम स्वरूप विदृप्रनि को वित्तीय तथा प्रशासनिक शक्तियां सौंप दी गई।

 

वर्षों से विदृप्रनि सामाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक विकास के एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता रहा है। सामाजिक-आर्थिक विषयवस्तुओं पर जन-साधारण में जागरूकता पैदा करने, विकासात्मक गतिविधियों में उनकी भागीदारी तथा गरीबी व सामयिक कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए विदृप्रनि सहायक की भूमिका निभाता रहा है।

 

1. केंद्र सरकार के लिए बहु-माध्यम विज्ञापन एजेंसी का कार्य करना।

2. केंद्र सरकार के मंत्रालयों/विभागों की प्रचार संबंधी आवश्यकताओं, जैसे मीडिया इनपुट का उत्पादन तथा संदेश/सूचना के प्रचार को पूरा करने के लिए सर्विस एजेंसी के रूप में कार्य करना।

3. केंद्र सरकार के विभागों को एम्प्रेक्षण कार्यनीति/मीडिया प्लान तैयार करने में सहायता करना तथा इनको मल्टी-मीडिया समर्थन प्रदान करके जमीनी स्तर पर कार्यान्वित करने में सहायता करना

 

सम्प्रेषण के लिए प्रयोग किए जाने वाले माध्यम :

1. विज्ञापन - प्रेस विज्ञापनों को जारी करना।

2. प्रदर्शनियां - प्रदर्शनियां लगाना।

3. बाह्य प्रचार - होर्डिंग, क्योस्क, बस पैनल, भित्ति-चित्र, सिनेमा स्लाइड, बैनर इत्यादि को प्रदर्शित करना।

4. मुद्रित प्रचार - बुकलेट, फोल्डर, पोस्टर, लीफलेट, कैलेंडर, डायरी इत्यादि।

5. श्रव्य दृश्य प्रचार - स्पॉट्‌स/क्वीकीस, जिंगल्स, प्रायोजित कार्यक्रम, लघु फिल्में इत्यादि।

6. प्रचार सामग्री का प्रेषण - प्रचार सामग्री का वितरण।

 

मुखयालय में विदृप्रनि के मुखय ढांचे में शामिल हैं :-

1. अभियान स्कंध - प्रचार अभियानों के समन्वय के लिए

2. विज्ञापन स्कंध - प्रेस विज्ञापनों को जारी करने के लिए

3. बाह्य प्रचार स्कंध - बाह्य प्रचार सामग्री को प्रदर्शित करने के लिए

4. मुद्रित प्रचार स्कंध - प्रचार सामग्री के मुद्रण के लिए

5. प्रदर्शनी स्कंध - प्रदर्शनियां लगाने के लिए

6. मास-मेलिंग स्कंध - प्रचार सामग्री का वितरण करने के लिए

7. श्रव्य-दृश्य इकाई - श्रृव्य/दृश्य कार्यक्रमों के उत्पादन के लिए

8. डी.टी.पी. सुविधा सहित स्टूडियो- डिजाइनिंग के लिए

9. कॉपी स्कंध - कॉपी बनाने के लिए

10. समन्वय इकाई - संसद प्रश्नों, वी.आई.पी. संदर्भों, संसदीय समितियों के समन्वय के लिए

11. इलैक्ट्रानिक डाटा प्रोसेसिंग सेंटर- बिलों की प्रोसेसिंग के लिए

12. लेखा स्कंध

13. प्रशासन स्कंध

 

देशभर में विदृप्रनि के कार्यालयों का नेटवर्क फैला हुआ है। विदृप्रनि के :-

1. बेंगलुरु तथा गुवाहाटी क्षेत्र में निदेशालय की गतिविधियों का समन्वय करने के लिए बेंगलुरु तथा गुवाहाटी में दो क्षेत्रीय कार्यालय स्थित हैं।

2. कोलाकाता तथा चेन्नई में दो क्षेत्रीय वितरण केंद्र हैं जो क्रमशः पूर्वी तथा दक्षिणी क्षेत्रों में प्रचार सामग्री के वितरण को देखते हैं।

3. 35 क्षेत्रीय प्रदर्शनी इकाइयां जिसमें सात चल प्रदर्शनी वाहन, सात परिवार कल्याण इकाइयां तथा 21 सामान्य क्षेत्रीय प्रदर्शनी इकाइयां शामिल हैं

4. चेन्नई में क्षेत्रीय प्रदर्शनी वर्कशाप तथा

5. गुवाहाटी में प्रदर्शनी किट उत्पादन केंद्र जो मुखयालय के प्रदर्शनी प्रभाग को प्रदर्शनी डिजाइन करने तथा तैयार करने में सहायता करता है।

 

विदृप्रनि द्वारा प्रचारित कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों में शामिल हैं :-

1. स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण

2. मादक पदार्थों की बुराइयां तथा निषेध

3. महिला एवं बाल विकास

4. बालिका का उत्थान

5. शिक्षा

6. प्रौढ़ शिक्षा

7. गैर-पारम्परागत ऊर्जा स्रोत

8. महिला समृद्धि योजना

9. राष्ट्रीय अखंडता तथा साम्प्रदायिक सौहाद्र

10. दहेज प्रथा, महिला भ्रूण हत्या, बाल श्रम, भिक्षावृत्ति इत्यादि के विरुद्ध जन-धारणा बनाना।

11. रक्तदान

12. एड्‌स जागरूकता

13. उपभोक्ता सुरक्षा

14. स्वच्छ पेय जल

15. विकलांगों का कल्याण

16. जल-जनित रोग

17. हस्थशिल्प

18. सामाज कल्याण कार्यक्रम

19. कृषि

20. खाद्य तथा पोषण

21. राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम

22. टी.आर.वाई.एस.ई.एम.

23. आई.आर.डी.पी.

24. डी.डब्ल्यू.सी.आर.ए.

25. रोजगार आश्वासन योजना

26. जवाहर रोजगार योजना

27. पंचायती राज तथा

28. भारत की आजादी के 50 वर्षों का स्मरणोत्सव

Sunday, December 11, 2016

रेडियो समाचार प्रस्तुति

आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के युग में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से सामान्य तात्पर्य टीवी चैनल ही हो गया है, लेकिन वास्तव में रेडियो भी इसका अभिन्न प्रकार है। सच तो यह है कि टीवी चैनलों का युग शुरू होने से पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का मतलब रेडियो ही रहा। प्रासंगिकता रेडियो की बाद में भी बनी रही और अब भी खत्म नहीं हुई है। ऐसे में रेडियो समाचार में भी पत्रकारों के लिए अवसर और चुनौतियां लगातार बने हुए हैं।

रेडियो समाचार प्रसारण में पत्रकारों के लिए मुख्य कार्य रिपोर्टिंग के अलावा, समाचार आलेखन, संपादन और वाचन का है। वास्तव में रिपोर्टिंग में भी समाचार लेखन का कार्य शामिल होता है क्योंकि रेडियो के लिए समाचार अधिकतर लिखित रूप में ही भेजे जाते हैं। रेडियो न्यूज़ की प्रक्रिया समाचार संकलन, रिपोर्ट लेखन, संपादन एवं अनुवाद, बुलेटिन निर्माण, और समाचार वाचन।

समाचार संकलन का कार्य तो सामान्य रिपोर्टिंग का ही अंग है। फर्क इसमें यह होता है कि इसमें कैमरे या तस्वीरों की गुंजाइश नहीं होती। इस तरह से रेडियो समाचार टीवी समाचार की तुलना में ज्यादा तेज गति से श्रोताओं तक पहुँच सकते हैं। समाचार जुटाने में वही सारी सावधानियाँ बरतनी होती हैं जो आमतौर पर पत्रकारों को पढ़ायी जाती हैं या जो वो अनुभव से सीखते हैं।

रिपोर्ट तैयार करते समय समाचार के सभी तथ्यों को ध्यान में रखना ज़रूरी होता है। घटना स्पष्ट रूप से वर्णित हो। स्थान के नाम इस तरह स्पष्ट दिए हों कि दूरदराज का पाठक भी वहाँ की भौगोलिक स्थिति का अनुमान लगा सके। प्रयास ये भी करना चाहिए कि व्यक्तियों और स्थानों के नाम इस तरह से समझाए जाएँ कि उनका समाचार वाचक सही उच्चारण कर सके। घटना की पृष्ठभूमि भी ज़रूरत के अनुसार दी जानी चाहिए।

समाचार रिपोर्ट आजकल फैक्स या ईमेल के जरिए (या ऐसे ही आधुनिक तंत्रों के जरिए) तुरंत ही समाचार कक्ष तक भेजी जाती है। समाचार रिपोर्ट प्राप्त होने पर प्रभारी समाचार संपादक का काम शुरू होता है। समाचार की गुणवत्ता के आधार पर वह उस समाचार को लेने या न लेने का निर्णय करता है। समाचार उपयोगी लगने पर वह स्वयं या सहयोगी संपादकों को वह रिपोर्ट देता है ताकि वो उसका संपादन करें या किसी अन्य भाषा में है तो उसे प्रसारण की भाषा में अनुवाद करें।

समाचार संपादक जो प्रति तैयार करता है, वही मोटे तौर पर वाचन प्रति होती है, इसलिए समाचार संपादक को बहुत सतर्कता से काम करने की ज़रूरत होती है। भाषा बहुत ही सरल, और हर हाल में बोली जाने वाली होनी चाहिए। हिंदी के हिसाब से देखें, तो ‘तथा, एवं, व’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कतई नहीं होना चाहिए क्योंकि बोलचाल में इन सबकी जगह हम हमेशा ‘और’ शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं। समाचार लेखन और संपादन में भी यही करना चाहिए। ‘द्वारा’ शब्द का इस्तेमाल तो भूलकर भी नहीं करना चाहिए। इसका इस्तेमाल तो अखबारी भाषा तक में वर्जित होता है।

इसके अलावा, संख्याओं को जहाँ तक संभव हो, राउंड फिगर में व्यक्त करना चाहिए, भले ही इसके लिए करीब या लगभग जैसे शब्दों का इस्तेमाल साथ में करना पड़े। अंग्रेजी में बड़ी संख्याएं मिलियन, बिलियन, और ट्रिलियन तक के रूप में व्यक्त की जाती हैं और सहज ही यह समझा जा सकता है कि हिंदी में गिनती के ये शब्द कतई नहीं चलते। हिंदी में संख्याएं हमेशा सौ, हजार, लाख, करोड़ और अरब आदि के रूप में व्यक्त करने पर ही श्रोता उन्हें समझ सकते हैं। दशमलव की संख्याओं के इस्तेमाल से भी बचना चाहिए और जहाँ ज़रूरी हो वहाँ दशमलव और उसके बाद के अंकों को शब्दों में ही लिख देना चाहिए। उदाहरण के लिए 7.65 को 7 दशमलव छह पाँच लिखना बेहतर होगा अन्यथा वाचक इसे सात दशमलव पैंसठ पढ़ने की गलती कर सकता है।

समाचार संपादन और अनुवाद करते समय वाक्य भी बहुत लंबे-लंबे नहीं होने चाहिए। भाषा की सरलता इस हद तक होनी चाहिए कि एक बार सुनते ही श्रोता आशय समझ जाए। अखबार की तरह रेडियो के श्रोता को कोई लाइन समझ न आने पर दोबारा देख लेने की सुविधा नहीं होती, इसलिए उसे एक बार में ही सारी बात समझानी होती है।

अखबार के समाचार की तरह रेडियो में समाचार का इंट्रो अलग से देना आसान नहीं होता। बुलेटिन लंबा हो, तब तो कुछ आसानी होती है जिसमें पहली लाइन में समाचार की सबसे मुख्य बात को दिया जा सकता है। अगर बुलेटिन बहुत छोटा (मसलन 5 मिनट का) हो तो समाचार की पंक्तियां इस तरह से चुननी पड़ती हैं कि वो इंट्रो का भी काम करें और मूल समाचार भी कह डालें।

समय के महत्व को बहुत ज्यादा ध्यान में रखना चाहिए और कम से कम शब्दों में अपनी बात कहनी चाहिए। रेडियो के संदर्भ में तो यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर किसी एक ही समाचार में ज्यादा समय लगा दिया तो निश्चित मानिए कि कोई दूसरा समाचार छूट जाएगा या पूरा नहीं जा पाएगा।

समाचार संपादन और अनुवाद पूरा हो जाने के बाद प्रभारी समाचार संपादक उस पर नजर डालकर उसे अंतिम रूप देता है। इस दौरान वह तथ्यों की जाँच ज़रूर करता है ताकि किसी भी तरह की गलती न जा सके। इसके बाद काम शुरू होता है, बुलेटिन निर्माता का। बुलेटिन निर्माता के पास ढेर सारे समाचार होते हैं जिनमें से वह महत्व के आधार पर कुछ समाचार चुनता है। समाचार बुलेटिन अगर बड़ा है तो चुने गए समाचारों में से ही वह हेडलाइंस या मुख्य समाचार भी चुनेगा। कम समय में ज्यादा से ज्यादा समाचार देने के क्रम में वह मूल प्रति में से काट-छांट भी कर सकता है और कुछ वाक्यों का रूप भी परिवर्तित कर सकता है। महत्वपूर्ण तथ्यों को एक बार फिर से जाँच लेना भी उसका दायित्व होता है। किसी शब्द के उच्चारण में वाचक को या समझने में श्रोता को दिक्कत तो नहीं होगी, इसका भी उसे ध्यान रखना चाहिए और आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर लेना चाहिए।

बुलेटिन निर्धारित समय में खत्म हो जाए, इसके लिए समाचारों की लाइनों और उन्हें पढ़ने में लगने वाले समय का हिसाब लगा लेना चाहिए। बुलेटिन निर्धारित समय से न तो पहले खत्म होना चाहिए और न ही बाद में। इसके लिए अंत में अक्सर छोटे छोटे समाचार रखने चाहिए ताकि आवश्यकतानुसार कहीं भी बुलेटिन खत्म करने में आसानी हो। बुलेटिन निर्धारित समय से पहले ही न खत्म हो जाए, इसके लिए बुलेटिन निर्माता को कुछ अतिरिक्त समाचार भी बुलेटिन के साथ में लगा देने चाहिए ताकि समय बचने की स्थिति में उनका इस्तेमाल करवा सके।

इस तरह से बुलेटिन पूरी तरह से तैयार हो जाने के बाद उसे समाचार वाचक के हवाले कर दिया जाता है। समाचार वाचक का काम प्रसारण योग्य मधुर आवाज़ में आकर्षक तरीके से समाचारों की प्रस्तुति करना होता है। प्राय: नया पैराग्राफ या नया समाचार बोलते समय थोड़ा ज़ोर से बोलना श्रोता का ध्यान खींचने में सहायक सिद्ध होता है। इसके अलावा, स्वर में उचित उतार-चढ़ाव या आरोह-अवरोह का तो अपना महत्व होता ही है। सबसे बड़ी बात यह है कि समाचार तैयार करने में कितनी भी बड़ी टीम क्यों न शामिल रहती हो, लेकिन श्रोता केवल समाचार वाचक की आवाज को ही पहचानता है। उसके लिए समाचार अच्छा या बुरा होने का जिम्मेदार केवल समाचार वाचक ही होता है। ऐसे में समाचार वाचक का कर्तव्य होता है कि वह माइक पर वाचन करने से पहले समय रहते एक बार रिहर्सल ज़रूर कर ले, ताकि किसी भी तरह की त्रुटि की गुंजाइश न रहे।

जानिए:- ऐसी होनी चाहिए टीवी और रेडियो की भाषा

जनसंचार के माध्यमों में टीवी और रेडियो सबसे प्रभावी माध्यम माना जाता है। टीवी और रेडियो का एक बड़ा दर्शक व श्रोता वर्ग है। ऐसे में टीवी और रेडियो में काम करने वाले लोगों की ये जिम्मेदारी बनती है कि वो लोगों के बीच आसान और साधारण भाषा में अपनी बात पहुंचाए। दरअसल प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में काफी अंतर है। हम ये मान के चलते हैं कि जो लोग न्यूज पेपर पढ़ रहे हैं वो पढ़े-लिखे हैं, लेकिन रेडियो और टीवी का दर्शक पढ़ा-लिखा हो ये जरूरी नहीं। ऐसे में टीवी और रेडियो में भारी भरकम लंबे शब्दों से हम बचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि. ऐसे शब्दों से भी बचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं – जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि।


शार्टकॉट लिखें पर बोलें नहीं-

बहुत से से ऐसे शब्द और संस्थाओं के नाम है जिनका शॉर्टकॉट प्रचलित है. लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जो इन नामों से परिचित नहीं है. इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम का इस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन) लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच. संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिन हमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईए वग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले की सहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं कि इसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है. या कहते हैं आइएईए यानी संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी.

घिसे-पिटे मुहावरों के प्रयोग से बच गए तो आप जंच गए-

कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटे शब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिन इससे रेडियो की भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है – ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषा लिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं. एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीत में कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारा नई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बात सीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. या सरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.) 

दर्शक और श्रोता ही हमारी मंजिल

रेडियो की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िल है- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में रेडियो की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहट हो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, रेडियो की भाषा को क्लासरुम की भाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है.

जो बोल गए , सो बोल गए…

याद रखने की बात यह भी है कि रेडियो न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आप बार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्ड करके सुनता है. आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ में आना चाहिए. इसलिए रेडियो के लिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें. साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो।
By-kiskash.com

रेडियो का इतिहास,भाषा शैली, प्रकृति और प्रकार

24 दिसंबर 1906 की शाम कनाडाई वैज्ञानिक रेगिनाल्ड फेसेंडेन ने जब अपना वॉयलिन बजाया और अटलांटिक महासागर में तैर रहे तमाम जहाजों के रेडियोऑपरेटरों ने उस संगीत को अपने रेडियो सेट पर सुना, वह दुनिया में रेडियो प्रसारण की शुरुआत थी।
इससे पहले जे सी बोस ने भारत में तथा मार्कोनी ने सन 1900 में इंग्लैंड से अमरीकाबेतार संदेश भेजकर व्यक्तिगत रेडियो संदेश भेजने की शुरुआत कर दी थी, पर एक से अधिक व्यक्तियों को एकसाथ संदेश भेजने या ब्रॉडकास्टिंग की शुरुआत 1906 में फेसेंडेन के साथ हुई। ली द फोरेस्ट और चार्ल्स हेरॉल्ड जैसे लोगों ने इसके बाद रेडियो प्रसारण के प्रयोग करने शुरु किए। तब तक रेडियो का प्रयोग सिर्फ नौसेना तक ही सीमित था। 1917 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के बाद किसी भी गैर फौज़ी के लिये रेडियो का प्रयोग निषिद्ध कर दिया गया।
पहला रेडियो स्टेशन
1918 में ली द फोरेस्ट ने न्यू यॉर्क के हाईब्रिज इलाके में दुनिया का पहला रेडियो स्टेशन शुरु किया। पर कुछ दिनों बाद ही पुलिस को ख़बर लग गई और रेडियो स्टेशन बंद करा दिया गया।

एक साल बाद ली द फोरेस्ट ने 1919 में सैन फ्रैंसिस्को में एक और रेडियो स्टेशन शुरु कर दिया।
नवंबर 1920 में नौसेना के रेडियो विभाग में काम कर चुके फ्रैंक कॉनार्ड को दुनिया में पहली बार क़ानूनी तौर पर रेडियो स्टेशन शुरु करने की अनुमति मिली।
कुछ ही सालों में देखते ही देखते दुनिया भर में सैंकड़ों रेडियो स्टेशनों ने काम करना शुरु कर दिया।
रेडियो में विज्ञापन की शुरुआत 1923 में हुई। इसके बाद ब्रिटेन में बीबीसीऔर अमरीका में सीबीएस और एनबीसी जैसे सरकारी रेडियो स्टेशनों की शुरुआत हुई।
भारत और रेडियो
1927 तक भारत में भी ढेरों रेडियो क्लबों की स्थापना हो चुकी थी। 1936 में भारत में सरकारी ‘इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया’ की शुरुआत हुई जो आज़ादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत होने पर भारत में भी रेडियो के सारे लाइसेंस रद्द कर दिए गए और ट्रांसमीटरों को सरकार के पास जमा करने के आदेश दे दिए गए।
नरीमन प्रिंटर उन दिनों बॉम्बे टेक्निकल इंस्टीट्यूट बायकुला के प्रिंसिपल थे। उन्होंने रेडियो इंजीनियरिंग की शिक्षा पाई थी। लाइसेंस रद्द होने की ख़बर सुनते ही उन्होंने अपने रेडियो ट्रांसमीटर को खोल दिया और उसके पुर्जे अलग अलग जगह पर छुपा दिए।
इस बीच गांधी जी ने अंग्रेज़ों भारत छोडो का नारा दिया। गांधी जी समेत तमाम नेता 9 अगस्त 1942 को गिरफ़्तार कर लिए गए और प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई।
कांग्रेस के कुछ नेताओं के अनुरोध पर नरीमन प्रिंटर ने अपने ट्रांसमीटर के पुर्जे फिर से एकजुट किया। माइक जैसे कुछ सामान की कमी थी जो शिकागो रेडियो के मालिक नानक मोटवानी की दुकान से मिल गई और मुंबई के चौपाटी इलाक़े के सी व्यू बिल्डिंग से 27 अगस्त 1942 को नेशनल कांग्रेस रेडियो का प्रसारण शुरु हो गया।
इस बीच गांधी जी ने अंग्रेज़ों भारत छोडो का नारा दिया। गांधी जी समेत तमाम नेता 9 अगस्त 1942
को गिरफ़्तार कर लिए गए और प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई।

पहला प्रसारण

अपने पहले प्रसारण में उद्घोषक उषा मेहता ने कहा, “41.78 मीटर पर एक अंजान जगह से यह नेशनल कांग्रेस रेडियो है।”
रेडियो पर विज्ञापन की शुरुआत 1923 में हुई
इसके बाद इसी रेडियो स्टेशन ने गांधी जी का भारत छोडो का संदेश, मेरठ में 300 सैनिकों के मारे जाने की ख़बर, कुछ महिलाओं के साथ अंग्रेज़ों के दुराचार जैसी ख़बरों का प्रसारण किया जिसे समाचारपत्रों में सेंसर के कारण प्रकाशित नहीं किया गया था।
पहला ट्रांसमीटर 10 किलोवाट का था जिसे शीघ्र ही नरीमन प्रिंटर ने और सामान जोडकर सौ किलोवाट का कर दिया। अंग्रेज़ पुलिस की नज़र से बचने के लिए ट्रांसमीटर को तीन महीने के भीतर ही सात अलग अलग स्थानों पर ले जाया गया।
12 नवंबर 1942 को नरीमन प्रिंटर और उषा मेहता को गिरफ़्तार कर लिया गया और नेशनल कांग्रेस रेडियो की कहानी यहीं ख़त्म हो गई।
नवंबर 1941 में रेडियो जर्मनी से नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भारतीयों के नाम संदेश भारत में रेडियो के इतिहास में एक और प्रसिद्ध दिन रहा जब नेताजी ने कहा था, “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा।”
इसके बाद 1942 में आज़ाद हिंद रेडियो की स्थापना हुई जो पहले जर्मनी से फिर सिंगापुर और रंगून से भारतीयों के लिये समाचार प्रसारित करता रहा।

आज़ादी के बाद

आज़ादी के बाद अब तक भारत में रेडियो का इतिहास सरकारी ही रहा है। आज़ादी के बाद भारत में रेडियो सरकारी नियंत्रण में रहा
सरकारी संरक्षण में रेडियो का काफी प्रसार हुआ। 1947 में आकाशवाणी के पास छह रेडियो स्टेशन थे और उसकी पहुंच 11 प्रतिशत लोगों तक ही थी। आज आकाशवाणी के पास 223 रेडियो स्टेशन हैं और उसकी पहुंच 99.1 फ़ीसदी भारतीयों तक है। टेलीविज़न के आगमन के बाद शहरों में रेडियो के श्रोता कम होते गए, पर एफएम रेडियो के आगमन के बाद अब शहरों में भी रेडियो के श्रोता बढने लगे हैं। पर गैरसरकारी रेडियो में अब भी समाचार या समसामयिक विषयों की चर्चा पर पाबंदी है।
इस बीच आम जनता को रेडियो स्टेशन चलाने देने की अनुमति के लिए सरकार पर दबाव बढता रहा है।
1995 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि रेडियो तरंगों पर सरकार का एकाधिकार नहीं है। सन 2002 में एनडीए सरकार ने शिक्षण संस्थाओं को कैंपस रेडियो स्टेशन खोलने की अनुमति दी। 16 नवम्बर 2006 को यूपीए सरकार ने स्वयंसेवी संस्थाओं को रेडियो स्टेशन खोलने की इज़ाज़त दी है।
इन रेडियो स्टेशनों में भी समाचार या समसामयिक विषयों की चर्चा पर पाबंदी है पर इसे रेडियो जैसे जन माध्यम के लोकतंत्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम माना जा रहा है।

रेडियो की भाषा

प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर है. भारी भरकम लंबे शब्दों से हम बचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि. ऐसे शब्दों से भी बचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं – जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि.

एक बात और. बहुत से शब्दों या संस्थाओं के नामों के लघु रूप प्रचलित हो जाते हैं जैसे यू. एन., डब्लयू. एच. ओ. वग़ैरह. लेकिन हम ये भी याद रखते हैं कि हमारे प्रसारण को शायद कुछ लोग पहली बार सुन रहे हों और वे दुनिया की राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हों.

इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम का इस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन) लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच.

संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिन हमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईए वग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले की सहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं कि इसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है. या कहते हैं आइएईए यानी संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी.

कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटे शब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिन इससे रेडियो की भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है – ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषा लिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं.

एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीत में कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारा नई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बात सीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. या सरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.)

रेडियो की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िल है- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में रेडियो की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहट हो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, रेडियो की भाषा को क्लासरुम की भाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है.

याद रखने की बात यह भी है कि रेडियो न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आप बार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्ड करके सुनता है.

आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ में आना चाहिए. इसलिए रेडियो के लिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें.

साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो

रेडियो समाचार

रेडियो समाचार की प्रकृति
रेडियो समाचार मूल तत्व को प्रभावी बनाती है। रेडियो के लिए समाचार लिखते समय सर्वप्रथम शीर्ष पंक्तिया देकर मुख्य विवरण और फिर संवाद का वर्णन किया जाता है। अल्प महत्व एवं साधारण विवरण हेतु रेडियो में समय प्रदान करने का प्रावधान नहीं है। समाचार-पत्रों में मुख्य विवरण को इंट्रों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, उसके बाद विस्तृत विवरण तथा अन्य कम महत्व को विवरण समाचार की गुणवत्ता, उसका मूल्यांकन तथा स्थान की उपलब्धता को देखते हुए दिया जाता है। एक अच्छे रेडियो संवाददाता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाचारों, संबंधित तथ्यों व आँकड़ों की षुद्धता, सत्यता तथा विष्वसनीयता के प्रति स्वयं आष्वस्त हो लें। उसके बाद ही समाचार को सतर्कतापूर्वक प्रेषित करना चाहिए, क्योंकि कोई भी छोटी सी भूल एक ओर जहाँ संवाददाता की बनी-बनाई प्रतिष्ठा को बट्टा लगा सकती है, वहीं दूसरी ओर इस तरह की खामियों से रेडियो प्रतिष्ठान की छवि प्रभावित होने का खतरा भी बना रहता है। यहाँ यह भी ध्यान रखना आवष्यक है कि समाचार-पत्र दिन में एक बार प्रकाषित होता हैा, परंतु रेडियो द्वारा समाचार प्रायः आधा या एक घंटे की अवधि के उपरांत क्रमषः प्रसारित होते रहते हैं। इस बसके चलते यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि किसी घटना विषेष अथवा विषिष्ट आयोजन से संबंधित दी जानेवाली जानकारियों में त्वरित नवीनता बनी रहे। इसके लिए संवाददाताओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे किसी भी मामले की निरंतर ताजा व नवीन जानकारियों से रेडियो स्टेषन को सूचित कराते रहें।

विपरीत परिस्थितियों एवं प्रतिकूल समय में कार्य करते हुए भी एक अच्छे रेडियो संवाददाता को किसी भी तरह की गलती करने की छूट नहीं होती। तत्काल वास्तविक समाचार प्रेषित करना निरंतर अभ्यास से संभव हो पाता है। एक रेडियो संवाददाता समाचार लिखने के तुरंत बाद बुलेटिन प्रसारित होने वाले स्थान अथवा न्यूज-रूम तक उसे बिना किसी विलंब के प्रेषित करता है। वहाँ क्रम व महत्व के अनुसार समाचार को चयनित करके संबंधित बुलेटिन में षामिल किया जाता है। तथ्यों की सत्यता एवं विवरण की विष्वसनीयता को परखने के लिए अन्य माध्यमों के संवाददाता की भांति रेडियो संवाददाता को भी विभिन्न स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका एक आसान उपाय यह भी है कि संवाददाता को जब किसी घटना की जानकारी अथवा विवरण का पता चलता है तो उसे उसकी सत्यता को परखे बिना रिपोर्ट नहीं करना चाहिए। इसको जांचने का एक तरीका यह भी है कि अन्य संबंधित स्रोतों से पूछताछ कर लिया जाए। इस सबका एक ही प्रयोजन है कि श्रोताओं को मिलने वाले समाचार पूर्णतः सत्य एवं सही हों। एक रेडियो संवाददाता को अपने समाचार में स्रोत का उल्लेख करना उपयोगी रहता है। मसलन किसी दुर्घटना के समाचार में वह लिख सकता है कि ‘आगरा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के अनुसार इस बस दुर्घटना में 10 लोगों की मृत्यु हो गई, जबकि 25 के करीब घायल हुए हैं।’ यही नहीं, तथ्यात्मक विवरण में संबंधित जिम्मेदार अधिकारी अथवा व्यक्ति के नाम का उल्लेख करना उचित रहता है। जैसे-‘भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता के अनुसार उनकी पार्टी कांग्रेस सरकार की वित्तीय नीतियों का खुलकर विरोध करेगी। रेडियो संवाददाता को ‘अपुष्ट सूत्रों के अनुसार’ अथवा ‘समझा जाता है’ या ‘ऐसा होना चाहिए’ आदि ष्षब्दों से पूर्णतः बचना चाहिए। इस तरह के का चलन प्रिंट माध्यमों में तो एक हद तक हो सकता है, परंतु रेडियो के लिए ये सर्वथा त्याज्य है। रेडियो संवाददाता को एक सूत्र पर हमेषा अमल करना चाहिए कि वह अपने समाचार में अधिकाधिक प्रामाणिक व विष्वसनीय तथ्य किस भांति प्रस्तुत कर सकता है। एक रेडियो संवाददाता को ‘डेड लाइन’ का सदैव ध्यान रखना ध्यान रखना पड़ता है। डेड लाइन से मतलब है कि समाचार भेजे जाने का अधिकतम अंतिम समय। उदाहरणार्थ, यदि एक संवाददाता को षाम को आठ बजे प्रसारित होने वाले न्यूज बुलेटिन में अपने भेजे गए समाचार को ष्षमिल करवाना है तो उसे संबंधित समाचार संपादक की कार्य-षैली व सीमाओं को देखते हुए समय से काफी पहले ही समाचार भेजने की प्रक्रिया को अंजाम देना चाहिए। डेस्क पर काम करने वाले संपादकीय सहयोगियों को समय से पूर्व मिले समाचारों में उसकी जरूरत के मुताबिक काट-छांट करने अथवा उसमें पर्याप्त संषोधन-संपादन करने का अवसर मिल जाता है। इससे समाचार की प्रामाणिकता भी पुष्ट होती है और माध्यम की विष्वसनीयता भी बनी रहती है। यही नहीं, गुणवत्ता के अनुरूप समाचार की जाँच पड़ताल के लिए भी पर्याप्त समय मिल जाता है। रेडियो संवाददाता को अंतिम परिणाम आने तक समाचार को नहीं रोकना चाहिए।

आल इंडिया रेडियो प्रसारण कोड
कोई भी प्रसारण निरपेक्ष स्वतंत्रता में काम नहीं कर सकता। उसे स्वतंत्रता के प्रयोग में कुछ सावधानियाँ बरतनी पड़ती हैं ताकि दूसरों की स्वतंत्रता का हनन न हो। आकाषवाणी प्रसारण के लिए कुछ निष्चित सीमाओं का निर्धारण किया गया है। जिसे एआईआर कोड के नाम से जाना जाता है। किसी भी प्रसारण में निम्न बातों की अनुमति नहीं दी जाती है-
1. किसी भी मित्र देश की आलोचना
2. किसी धर्म या समुदाय पर आक्षेप
3. अश्लील एवं अपमानजनक बातें
4. शांति व्यवस्था को भंग या हिंसा को प्रेरित करने वाली बातें
5. न्यायालय के लिए अनादर सूचक बातें
6. राष्ट्रपति, न्यायालय या राज्यपाल की प्रतिष्ठा पर विपरीत प्रभाव डालने वाली बातें।
7. किसी राजनीतिक दल या पार्टी पर आच्छेप
8. केन्द्र तथा राज्यों की अनुचित आलोचना
9. संविधान या जाति विषेष का अनादर

रेडियो कार्यक्रम के प्रकार
आकाषवाणी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है।
1. समाचार
2. संगीत
3. उच्चरित शब्द
समाचार समाचार प्रसारण का कार्य अभी तक एकमात्र आकाषवाणी द्वारा किया जाता है। अलग-अलग अवधि के बुलेटिन नियमित अन्तराल पर 24 घण्टे लगातार प्रसारित किए जाते हैं। आकाशवाणी के प्रसारण में संगीत कार्यक्रमों का प्रमुख स्थान हो। अन्य कई नये साधनों के आने के बावजूद संगीत के लिए शहरों तथा दूर-दराज के क्षेत्रों में रेडियो के प्रसारण सुने जाते हैं। आकाशवाणी द्वारा शास्त्रीय, सुगम, लोक-संगीत भक्ति संगीत तथा देशभक्ति गीत आदि का नियमित प्रसारण किया जाता है।
उच्चरित शब्द (स्पोकन वर्ड) के अन्तर्गत वार्ताएं, परिचर्चा, साक्षात्कार, कविता, कहानी, नाटक, रूपक आदि आते हैं। आकषवाणी से महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्पर्धाओं का आँखों देखा हाल प्रसारित किया जाता है

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भाषा और बोली

भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते है और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। भाषा मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वनएक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे पर प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। बोली। जबान। वाणी। विशेष— इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कुत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।

सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।

इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषाअवधीबुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है।

संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।

प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियोंकी सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। उदाहरणार्थ पंजाबीगुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दीमराठीसंस्कृतनेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है।

परिभाषा

बोली, विभाषा, भाषा और राजभाषासंपादित करें

यों बोली, विभाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बता पाना कठिन है, क्योंकि इसमें मुख्यतया अन्तर व्यवहार-क्षेत्र के विस्तार पर निर्भर है। वैयक्तिक विविधता के चलते एक समाज में चलने वाली एक ही भाषा के कई रूप दिखाई देते हैं। मुख्य रूप से भाषा के इन रूपों को हम इस प्रकार देखते हैं-

(१) बोली,

(२) विभाषा और

(३) भाषा (अर्थात् परिनिष्ठित या आदर्श भाषा)

बोली भाषा की छोटी इकाई है। इसका सम्बन्ध ग्राम या मण्डल से रहता है। इसमें प्रधानता व्यक्तिगत बोली की रहती है और देशज शब्दों तथा घरेलू शब्दावली का बाहुल्य होता है। यह मुख्य रूप से बोलचाल की ही भाषा है। अतः इसमें साहित्यिक रचनाओं का प्रायः अभाव रहता है। व्याकरणिक दृष्टि से भी इसमें असाधुता होती है।

विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार पर कई बेलियां प्रचलित रहती हैं। विभाषा में साहित्यिक रचनाएं मिल सकती हैं।

भाषा, अथवा कहें परिनिष्ठित भाषा या आदर्श भाषा, विभाषा की विकसित स्थिति हैं। इसे राष्ट्र-भाषा या टकसाली-भाषा भी कहा जाता है।

प्रायः देखा जाता है कि विभिन्न विभाषाओं में से कोई एक विभाषा अपने गुण-गौरव, साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक प्रचलन आदि के आधार पर राजकार्य के लिए चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में या राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है।